गिरमिटिया मज़दूरों और बंधुआ मज़दूरों का प्रवासन भारतीय इतिहास का सबसे कम चर्चित विषय रहा है।
महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के दबाव के बाद ब्रिटिश भारत की इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल (Imperial Legislative Council) द्वारा 1917 में आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित किये जाने के बावजूद भी भारत में बंधुआ मज़दूरी (जो 1834 में शुरू हुई थी) वर्ष 1922 तक चलती रही।
गिरमिटिया मज़दूरी - ऐतिहासिक नज़र से
1820 के दशक में यूरोप में एक नए तरह के उदार मानवतावाद ने जन्म लिया जिसमें दास प्रथा को अमानवीय माना जाने लगा। इसके पश्चात् 1830-1860 के बीच ब्रिटिश, फ्राँसीसी और पुर्तगालियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में गुलामी पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया।
परंतु कुछ विचारकों का मानना है कि उपनिवेशवादियों ने गुलामी को सिर्फ इस कारण प्रतिबंधित किया ताकि वे एक नई प्रथा ‘गिरमिटिया मज़दूरी’ के साथ इसे प्रतिस्थापित कर सकें।
ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया तक हो रहा था और उन्हें नए श्रमिकों की आवश्यकता थी, लेकिन दासता या दास प्रथा को अमानवीय करार दे दिया गया था, जिसके कारण अनुबंध श्रम की एक नई अवधारणा का विकास हुआ।
भारत से गिरमिटिया मज़दूरों के प्रवासन की शुरुआत दास या गुलाम प्रथा के उन्मूलन के पश्चात् कैरेबियाई क्षेत्र में ब्रिटिशों द्वारा स्थापित चीनी और रबड़ के बागानों को चलाने के लिये की गई थी।
गिरमिटिया मज़दूरी के प्रचलन ने कैरेबियाई क्षेत्र सहित फिजी, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, मलेशिया और श्रीलंका जैसे देशों में भारतीय प्रवासियों की विशाल विरासत का विकास किया।
गिरमिटिया मज़दूरों को मासिक आधार पर मज़दूरी का भुगतान किया जाता था और वे उन्हीं बागानों में रहते थे जहाँ वे कार्य करते थे।
गिरमिटिया मज़दूरी की शर्तों में यह लिखा होता था, कि कोई भी पुरुष अपनी मज़दूरी की 10 वर्षीय अवधि को पूरा करने के बाद अपने देश वापस लौट सकता है, परंतु ब्रिटिश नहीं चाहते थे कि कोई भी मज़दूर वापस लौटे क्योंकि इससे उनके व्यापार पर प्रभाव पड़ सकता था और इसी उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने पारिवारिक प्रवासन को प्रोत्साहित किया जिसका परिणाम यह हुआ कि कई गिरमिटिया मज़दूर उसी देश में बस गए जहाँ उन्हें काम के लिये ले जाया गया था।
गुलामी थी गिरमिटिया मज़दूरी
ब्रिटिश इतिहासकार ह्यूग टिंकर (Hugh Tinker) जिन्होंने ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान गुलामी जैसे विषय पर काफी शोध किया, ने गिरमिटिया मज़दूरी को “एक नए प्रकार की गुलामी” के रूप में परिभाषित किया था।
हालाँकि ब्रिटिश साम्राज्य ने गिरमिटिया मज़दूरी को गुलामी से अलग करने के काफी प्रयास किये और इसे ‘समझौते’ के रूप में प्रदर्शित किया।
ब्रिटिश सरकार ने गिरमिटिया मज़दूरी के लिये मुख्यतः उन युवाओं और पुरुषों को भर्ती किया जो क्षेत्रीय स्तर पर कृषि के पतन से प्रभावित थे या किसी अन्य आपदा के शिकार हुए थे, क्योंकि खराब आर्थिक स्थिति के कारण ये लोग अफसरों की बातों में आसानी से आ जाते थे।
आमतौर पर ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरमिटिया मज़दूरों को उनके कार्य की प्रकृति, वेतन, रहने का स्थान और स्थिति आदि के बारे में गुमराह किया जाता था।
इसके अलावा प्रवासियों को कार्यस्थल पर काफी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था, क्योंकि वहाँ पर्याप्त भोजन, स्वच्छ पानी, स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवा की कमी थी।
गिरमिटिया मज़दूरों का अन्य उपनिवेशों पर प्रभाव
भारत से जो भी मज़दूर अन्य देशों में भेजे गए वे अपने साथ अपनी संस्कृति को भी भाषा, भोजन और संगीत के माध्यम से वहाँ ले गए।
जब वे इन उपनिवेशों में पहुँचे तो उन्होंने एक अनूठे सामाजिक-सांस्कृतिक पारिस्थितिक तंत्र (Socio-Cultural Ecosystems) का निर्माण किया, जबकि उन्हें अपने कार्य स्थलों से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी।
मॉरीशस, सूरीनाम और फिजी में स्थानीय लोगों ने इन भारतीय प्रवासियों का काफी विरोध किया क्योंकि गिरमिटिया मज़दूर बहुत मेहनती थे जिसके कारण बागान के मालिक भी उन्हीं को प्राथमिकता देते थे।
अपनी मज़दूरी की शर्तों को पूरा करने के बाद कुछ गिरमिटिया मज़दूर वापस भारत लौट आए, जबकि अधिकतर लोग वहीं रह गए।
इन लोगों के वापस न आने का प्रमुख कारण यह था कि उन्होंने अपने जीवन और परिवार को इन उपनिवेशों में दोबारा बसा लिया था और गरीबी के कारण पुनः किसी अन्य स्थान पर जाकर बसना उनके लिये काफी मुश्किल था।
मॉरीशस में कई प्रवासियों, जिन्होंने अपनी मासिक मज़दूरी बचाई थी, ने अपनी कार्य संबंधी शर्तों को समाप्त करने के बाद ज़मीन के छोटे भूखंड खरीदे और स्वयं भूस्वामी बन गए।